यह कहानी मध्य भारत के एक छोटे से राज्य की है, जिसका नाम था विक्रमादित्यपुर। इस राज्य की रानी वेला एक अत्यंत वीर और बुद्धिमान शासिका थी, जो अपनी प्रजा के प्रति अपने कर्तव्यों को बखूबी निभाती थी। रानी वेला के बारे में प्रसिद्ध था कि वह न केवल अपनी सुंदरता के लिए बल्कि अपनी नीतियों और युद्ध कौशल के लिए भी पहचानी जाती थीं।
राज्य में एक प्राचीन मंदिर था, जहाँ महाकाल शिव का मंदिर स्थापित था। यह मंदिर सिर्फ एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि राज्य की शक्ति और गौरव का प्रतीक भी था। एक दिन, राज्य में एक भयंकर महामारी फैल गई। राज्य के लोग भयभीत हो गए और रानी वेला से मदद की गुहार करने लगे। रानी ने सोचा कि शायद महाकाल शिव की कृपा से ही राज्य इस संकट से उबर सकता है।
रानी वेला ने महाकाल शिव से आशीर्वाद लेने के लिए मंदिर में पूजा अर्चना की और एक वचन लिया। उन्होंने महाकाल से कहा, “हे महाकाल, यदि मेरी प्रजा को इस महामारी से बचाना है, तो मैं अपना सबसे मूल्यवान आभूषण तुम्हें समर्पित करूंगी।” यह वचन रानी वेला ने पूरी निष्ठा से लिया।
महाकाल शिव ने रानी के वचन को स्वीकार किया और कहा, “प्रजा की रक्षा होगी, लेकिन तुम्हारे द्वारा दिया गया वचन तुम्हारे जीवन का सबसे कठिन मार्ग होगा।” रानी वेला ने महाकाल के वचन को स्वीकार किया और अपने राज्य के लोगों के बीच संजीवनी बूटी की तलाश में निकल पड़ी।
रानी ने कठिन यात्रा की, जंगलों, पहाड़ों, और घने अंधकार में कई बाधाओं को पार किया। अपनी पूरी शक्ति और संकल्प के साथ, रानी वेला ने राज्य की प्रजा को बचाने के लिए महाकाल शिव द्वारा बताए गए जड़ी-बूटियाँ प्राप्त कीं।
जब रानी वेला लौट आई और प्रजा को संजीवनी बूटी दी, तो राज्य में महामारी समाप्त हो गई और लोग फिर से खुशहाल हो गए। रानी वेला ने महाकाल शिव को अपना सबसे मूल्यवान आभूषण समर्पित किया। यह आभूषण वास्तव में उसकी वीरता और संकल्प का प्रतीक बन गया।