यह 1917 का समय था, जब बिहार के चंपारण जिले में किसानों को अंग्रेज़ों द्वारा नील की खेती करने के लिए मजबूर किया जा रहा था। अंग्रेज़ों ने एक नियम लागू किया था जिसे “तीनकठिया व्यवस्था” कहते थे। इस नियम के तहत, किसानों को अपनी ज़मीन के 3/20 हिस्से पर नील की खेती करनी पड़ती थी। इसके कारण किसानों की खाद्य फसलें नष्ट हो रही थीं, और उन्हें भारी आर्थिक नुकसान हो रहा था।
गाँव के किसानों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ आवाज़ उठाने की कोशिश की, लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। इसी दौरान, एक किसान नेता, राजकुमार शुक्ल, ने महात्मा गांधी से संपर्क किया। शुक्ल जी ने गांधी जी से विनती की कि वे चंपारण आकर किसानों की समस्या को समझें और उनका मार्गदर्शन करें।
गांधी जी ने उनकी बात मानी और चंपारण की यात्रा की। यह उनके जीवन का पहला सत्याग्रह आंदोलन था। वहाँ पहुँचकर उन्होंने गाँव-गाँव जाकर किसानों की दुर्दशा देखी। उन्होंने देखा कि कैसे अंग्रेज़ी हुकूमत ने किसानों को दास बना रखा था। गांधी जी ने अंग्रेज़ अधिकारियों से बात की और किसानों की शिकायतों को उनके सामने रखा।
लेकिन अंग्रेज़ों ने गांधी जी की बात सुनने से इनकार कर दिया और उन्हें चंपारण छोड़ने का आदेश दिया। गांधी जी ने यह आदेश मानने से इनकार कर दिया और कहा, “मैं यहाँ अपने भाइयों के लिए आया हूँ, और जब तक उनका दुख दूर नहीं होगा, मैं यहाँ से नहीं जाऊँगा।”
गांधी जी की इस दृढ़ता के कारण, अंग्रेज़ सरकार को झुकना पड़ा। चंपारण में किसानों पर से नील की जबरन खेती का दबाव खत्म कर दिया गया। यह भारत में गांधी जी का पहला सत्याग्रह आंदोलन था, जिसने पूरे देश को स्वतंत्रता संग्राम के लिए एकजुट किया।
संदेश: चंपारण सत्याग्रह ने यह साबित किया कि अहिंसा और सत्य के बल पर भी बड़े से बड़ा अन्याय हराया जा सकता है। महात्मा गांधी और चंपारण के किसानों का संघर्ष हमें सिखाता है कि न्याय के लिए लड़ने का साहस हर किसी में होना चाहिए।