क्या भाषाई झगड़े वाजिब हैं? अंग्रेज़ों के आने से पहले कैसे बात करते थे लोग?

भारत, जहां कोस-कोस पर पानी और चार कोस पर वाणी बदलती है, वहां भाषा केवल संवाद का साधन नहीं, बल्कि संस्कृति, पहचान और गर्व का प्रतीक है।हाल के दिनों में तमिलनाडु और महाराष्ट्र में तमिल और मराठी भाषाओं को लेकर विवाद ने सुर्खियां बटोरी हैं। तमिलनाडु में केंद्र सरकार पर हिंदी थोपने का आरोप लगा, तो महाराष्ट्र में मराठी को प्राथमिकता देने की मांग ने जोर पकड़ा। ये विवाद हमें सोचने पर मजबूर करते हैं—क्या भाषा हमें जोड़ती है या बांटती है?

🔁 जब अंग्रेज़ी नहीं थी, तब कैसे होती थी बात?

बहुत से लोग सोचते हैं कि अंग्रेज़ी से पहले भारत में शायद संवाद की बहुत कठिनाइयाँ रही होंगी, लेकिन सच इसके ठीक उलट है।

  • स्थानीय भाषाओं का सम्मान होता था और साथ ही दूसरी भाषाओं को समझने का धैर्य भी।
  • व्यापारी, तीर्थयात्री और शिल्पकार संकेत, मिश्रित भाषा (खिचड़ी भाषा) या संगम बोलियाँ बोलकर संवाद करते थे।
  • संस्कृत, फारसी, और प्राकृत जैसी भाषाएँ सेतु का काम करती थीं।
  • दक्षिण भारत में तमिल, तेलुगू, मलयालम अपने-अपने क्षेत्र में मजबूत थीं लेकिन राजकीय स्तर पर संस्कृत या फारसी का उपयोग होता था।

⚔️ तो अब क्यों हो रही है लड़ाई?

आज जब शिक्षा, तकनीक और अनुवाद के इतने साधन हैं, तब भी भाषाओं को लेकर झगड़े बढ़ रहे हैं। वजहें कई हैं:

  1. राजनीतिक एजेंडा: कुछ लोग भाषा को अपनी राजनीति चमकाने का हथियार बना लेते हैं।
  2. सांस्कृतिक असुरक्षा: लोगों को लगता है कि उनकी भाषा खत्म हो जाएगी अगर दूसरी भाषा का प्रचार हुआ।
  3. अंग्रेज़ी का दबाव: अंग्रेज़ी के बढ़ते प्रभाव से स्थानीय भाषाएं खुद को असुरक्षित महसूस करने लगी हैं।

🧠 भाषा – हथियार नहीं, सेतु बनाइए

भारत की खूबसूरती उसकी भाषाई विविधता में है। सोचिए – आप चेन्नई जाएँ और वहाँ कोई दुकानदार टूटी-फूटी हिंदी में मुस्कुराकर आपकी मदद करे – यही तो असली भारत है।

  • भाषा से रास्ते बनते हैं, दीवारें नहीं।
  • तमिल या मराठी कोई प्रतियोगी नहीं हैं – ये हमारी विरासत हैं।
  • भाषा पर गर्व कीजिए, पर दूसरों की भाषा को नीचा दिखाना अपनी संस्कृति को ही छोटा करना है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top